मेरे साथ ही क्यों ?
मेरे जीवन में इतनी मुश्किलें क्यों हैं? लोग मेरे साथ ऐसा व्यवहार क्यों करते हैं? मेरा स्वभाव ऐसा क्यों है? मेरा जीवन क्या ऐसा ही रहेगा? जो भी मेरे साथ होता है वो मेरा भाग्य तय करता है पर फिर मेरा भाग्य कौन तय करता है? मेरा भाग्य ऐसा ही क्यों है? किसने लिखा है मेरे भाग्य को? इस प्रश्न के उत्तर में हमें अक्सर दो तरह की बातें सुनने को मिलती हैं-
- एक, जो भी हमारे साथ होता है, हमारे पिछले कर्मों का फल है|
- दूसरी, ईश्वर की मर्ज़ी के बिना कुछ नहीं होता| तो इसका अर्थ हुआ कि मेरा भाग्य ईश्वर ने लिखा है|
ईश्वर, जिसे हम “पिता” की तरह देखते हैं, मानते हैं कि वह हमारा रक्षक है| वह बहुत दयालु है और अपने बच्चों से बहुत प्रेम करता है| किसी भी मुश्किल में हम ईश्वर से ही सहायता की प्रार्थना करते हैं और कितनी ही बार ऐसा भी हुआ है कि कोई अनचाही परिस्थिति आ जाये या कोई दुर्घटना हो जाये तो हमने खुद को और औरों को भी ये कह के दिलासा देने की कोशिश की है कि “यही भगवान की मर्जी थी” न जाने कितनी ही बार हमने दुखी ह्रदय से ये भी कहा है कि “ईश्वर तू बड़ा निर्दयी है”!
क्या वाकई आपको लगता है कि ईश्वर ही है हमारे भाग्य का रचयिता? वही लिखता है हमारी किस्मत और विवश करता है हमें “उसकी मर्जी” से तय भाग्य के अनुसार जीवन जीने को?
शायद हाँ !
चलिए अब इस सिद्धांत को जरा जाँच लेते हैं, मान लीजिये आपको शक्ति मिल गयी है अपने बच्चों का भाग्य लिखने की! तो क्या लिखेंगे आप?
अपने बच्चों के लिए आपकी लिखी किस्मत कुछ ऐसी होगी|
सब तरह की खुशियाँ, अच्छा स्वास्थ्य, सुन्दर रिश्ते, सफलताएं यानि कुल मिला कर एक शांत सुखद जीवन, है ना? और अगर आपके बच्चों से कोई बच्चा थोड़ा शरारती हो, ज़िद्दी हो, गैर ज़िम्मेदार हो तो क्या आप उसके जीवन में दुःख आये, पीड़ा आये, क्लेश आये, ऐसा लिखेंगे? चलिए मान लीजिये अब आपको आपके अपनों का नहीं औरों का भाग्य लिखना है तो क्या अब आप किसी के भाग्य में लिखेंगे कि इस व्यक्ति को अपने छोटे से बच्चे की मृत्यु देखनी होगी? क्या किसी के भाग्य में लिखेंगे कि वो अपनी युवावस्था में किसी दुर्घटना में या किसी असाध्य बीमारी के कारण अपनी जान गँवा देगा और अपनी पत्नी और बच्चों को बेसहारा छोड़ जायेगा? क्या किसी के भाग्य में आप ऐसा लिख पाएंगे कि इसे कभी पता नहीं चलेगा इसके माता पिता कौन हैं और ये अपना सारा बचपन परिवार की शीतल छाँव के बिना अनाथ हो कर मायूसी में गुज़ार देगा! और दुखों की ये सूचि अंतहीन हो सकती है! अजनबी लोगों की छोड़िए, यदि किसी ऐसे व्यक्ति से जिस से आपका कुछ मन मुटाव हो, क्या उसके भाग्य में आप ऐसे दुःख और हादसे लिख पाएंगे? नहीं ना?
तो सोचिये जब हमारे जैसे साधारण लोग जिनके मन में नाराज़गी, क्रोध, ईर्ष्या जैसी भावनाएं कभी न कभी रहती ही हैं वो भी इतने निष्ठुर नहीं हो सकते कि किसी के भाग्य में ऐसे दुःख ऐसी पीड़ाएँ लिख दें, तो फिर वो! वो जो करुणा का सागर है, जिससे हम इन कठिन घड़ियों में सहायता की, न्याय की उम्मीद करते हैं, क्या वो इतना पाषाण हृदयी हो सकता है कि अपनी संतान के भाग्य में ऐसे ऐसे दुःख लिख दे!
उसे तो हम परम पिता परमात्मा कहते हैं, यानि सबका पिता! तो कौन पिता ऐसा होगा जो अपने बच्चों के लिए इतने दुःख, इतनी परेशानियाँ चुनेगा? कोई भी पिता ऐसा नहीं करेगा, कभी नहीं! तो हमारा परम पिता ऐसा कैसे कर सकता है? पर अगर ईश्वर ने मेरा भाग्य नहीं लिखा है तो फिर किसने लिखा है? कोई शक्ति तो है ही जो भाग्य को, नियति को सुनिश्चित करती है, कौन है वो?
और यहाँ आता है “कर्म का सिद्धांत ” या “कुदरत का कानून” (law of karma) जो कहता है कि,
“जो भी मेरे साथ होता है उसके लिए मै स्वयं उत्तरदायी हूँ”
सहमत हैं आप? शायद नहीं! आप कहेंगे मैं! मै कैसे उत्तरदायी हो सकता हूँ! कितना कुछ जीवन में ऐसा घट गया जब मेरे वश में तो कुछ था ही नहीं! तो मैं कैसे हुआ अपने भाग्य का रचयिता? इस से पहले कि हम ये जानें कि “मैं कैसे उत्तरदायी हूँ?” हमे पहले ये जानना होगा कि ये “मैं” है कौन? कहाँ से आया है? और सबसे बड़ी बात कि कैसे हुआ यह “मैं” मेरे भाग्य का रचयिता?
जानने के लिए पढ़िए “मैं कौन हूँ? एक मुलाकात स्वयं से”