अध्यात्म (Spiritualism)

सन्यासी या गृहस्थ – किसकी तपस्या बड़ी?

संसार से भागे फिरते हो...भगवान् को तुम क्या पाओगे
इस लोक को भी अपना न सके...उस लोक में भी पछताओगे

1964 में आयी फिल्म चित्रलेखा का यह गीत संन्यास की सार्थकता पर एक गहरा मन-मंथन प्रस्तुत करता हैं। ईश्वर कण-कण में हैं तो उसकी खोज के लिए संसार छोड़ने की क्या आवश्यक्ता हैं? सब छोड़ कर एकांत में रह रहा व्यक्ति अधिक महान हैं या ‘सब कुछ’ का सामना करने वाला? किसकी तपस्या अधिक हैं?

हमें लगता हैं हम अपने दायित्वों को निभा रहें हैं, संसार में रह कर सारी कठिनाइयों को झेल रहे हैं, अपने ‘अपनों’ के दुःख में दुखी होते हैं, उनकी ख़ुशी में खुश होते हैं, उनके भले के लिए उन पर क्रोध करते हैं, उनका जीवन सुचारु रहे इसलिए उन पर नियंत्रण रखते हैं, वक़्त और ज़रूरत को समझ कर अच्छों से अच्छा और बुरों से बुरा व्यवहार कर दुनियादारी निभातें हैं। वाकई कितना कुछ करता है संसार में रहने वाला व्यक्ति! ये सब किसी तपस्या से कम तो नहीं…!

यही भ्रम हैं!

क्योंकि हम तपस्या का अर्थ समझते हैं एक ‘कष्टप्रद स्थिति’ तो भला गृहस्थ के कष्टों का सन्यासी के कष्टों से क्या मुक़ाबला। सब छोड़ कर बैठ जाना तो सरल हैं असल बात तो परिस्थितियों से जूझने में हैं। पर यहीं हमें रुक कर यह समझने की ज़रूरत हैं के तपस्या का अर्थ “दुःख झेलना” नहीं होता।

व्यक्ति के लिए गृहस्थ जीवन तपस्या इसलिए नहीं हैं के वह ‘संसार के दुःख झेलता हैं’। गृहस्थ-तपस्या का अर्थ हैं – गृहस्थी में रह कर गृहस्थ के सभी दायित्वों का निर्वहन करते हुए भावनाओं में न बहना।

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परिवार में रहें और भावनाएँ ना हों, भला ये कैसे हो सकता हैं ?

भावनाओं का अर्थ हम क्या समझते हैं? सामान्य अवस्था से विचलित होना। ख़ुशी- एक आवेग हैं, दुःख- एक आवेग हैं, क्रोध- एक आवेग हैं। परन्तु आवेग और विवेक दोनों एक साथ नहीं हो सकते। एक समय में एक ही हो सकता हैं। इसलिए जब तक मन में आवेग हैं तब तक कर्म के चक्रव्यूह में गहरें और गहरे उलझते ही जायेंगे।

गृहस्थ, जो अभी सिर्फ़ भोग में उलझा हैं वह तपस्वी नहीं कहला सकता। सन्यासी होने से पहले उसे भोगी से कर्मयोगी की श्रेणी में आना होगा। भोग तपस्या का पर्याय नहीं होता पर कर्मयोग अवश्य एक तपस्या हैं! भोगी से योगी हो जाने के बीच की अवस्था ‘कर्म योगी’ होना हैं।

कर्मयोगी कौन?

जिसके मन में मोह न हो – प्रेम हो।

दुःख न हो – करुणा हो।

मोह और दुःख भोगी के जीवन का अंग होते हैं। ये मन को विचलित किए रखने वाले भाव हैं – विचलित मन तपस्वी नहीं हो सकता। प्रेम और करुणा मन को विचलित नहीं करते। स्थिर करते हैं – इसी अवस्था को स्थितप्रज्ञता कहते हैं। स्थितप्रज्ञता तपस्वी मन की पहली शर्त हैं !

किसी पर विजय पाना तभी सम्भव है जब उसका सामना किया हो इसलिए सुख-दुःख (राग द्वेष) पर विजय पाने के लिए संसार में रह कर इनका सामना करना आवश्यक हैं। इसलिए गृहस्थ जीवन को ‘धर्म’ कहा गया हैं। कर्मयोगी द्वारा सुख-दुःख की भावनाओं पर विजय एक आधारभूत (basic) आवश्यकता थी, लेकिन आध्यात्म की यात्रा कर्मयोगी हो जाने मात्र पर पूर्ण नहीं होती इसके आगे अभी बहुत मार्ग शेष हैं और यहाँ से आगे बढ़ने के लिए शेष सभी कुछ पीछे छोड़ना पड़ता है।

वैसे ही जैसे स्कूल में सारे subjects पढ़ें फिर high स्कूल में किसी एक वर्ग के विषय चुन लिए, फिर master degree के लिए विषय को और भी सीमित किया और अगर आगे शोध करना चाहेंगे तो और भी specefic topic पर focus करना होगा । अब इसका अर्थ यह नहीं हैं की पीछे इतने वर्ष जो पढ़ा उसमें यह जीवन व्यर्थ किया था। वह सब आवश्यक था यहाँ तक आने के लिए।

संसार के दुखों से भाग कर अगर सन्यास में आने का सोच रहे हैं तो योग्यता (eligibility) ही नहीं हैं अभी…निभा ही नहीं पाएँगे क्योंकि आवश्यक तैय्यारी के बिना आए हैं ! वैराग्य को निभा नहीं पाएंगे क्योकिं प्रेम की तरह वैराग्य भी ‘करने’ का नहीं ‘होने’ का भाव हैं।

हाँ, यदि ये तैय्यारी पूर्व जन्मों में हो चुकी होगी तो सम्भव हैं कि अल्पायु में सांसारिक विमुखता अनुभव हो पर यदि दुःखी हो कर सन्यास की और जा रहा हैं मन तो ये पलायन हैं आध्यात्मिक यात्रा का अगला पड़ाव नहीं

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