जजमेंटल है क्या ??
पुरानी कहावत है कि चावल पक गए हैं या नहीं यह जाँचने के लिए चावल का एक दाना देख लेना काफ़ी होता है। सारे चावलों को दबा कर “परखने” की ज़रूरत नहीं होती।
परखने की इस “तकनीक” के हम इतने क़ायल हैं कि सामने चावल हो या इंसान सभी के लिए इसी तकनीक का इस्तेमाल करने लगते हैं। बस, यही है — जजमेंटल होना !
आप कह सकते हैं, “हमारे पास बुद्धि है, बरसों का अनुभव है, तो क्या सामने वाले को “परखें” भी ना? अगर इतना भी न कर सकें तो फिर किस काम का सारा ज्ञान!”
ज़रूर परखिये! मगर इतना याद रखिये कि आपकी पतीली के सब चावल एक जैसे हैं पर आपको मिलने वाले सब इंसान “एक जैसे” नहीं हैं।
परखना बुरी बात नहीं पर “एक बात” को देख कर किसी के “पूरे व्यक्तित्व” का क़यास लगा लेना और अपने उस “क़यास” के आधार पर आगे वह व्यक्ति क्या-क्या करेगा यह “तय” कर लेना, और उसके उस “सम्भावित” व्यवहार से हमें कितनी परेशानी “होगी” उसे “अभी महसूस करने लगना”— यह एक ख़तरनाक स्थिति है!!
क्योंकि अब हम “उन आशंकाओं” को जीने लगते हैं जिनके होने की सम्भावना नगण्य है। लेकिन हम अपने तरकश में वे सारे तीर रेडी करने लगते हैं जिनकी हमें ज़रूरत “पड़ सकती है” !
इसके बाद बे-सब्रा मन, सामने से किसी “हमले” की प्रतीक्षा भी नहीं करता, ख़ुद को ख़ुद के ही रचे मानसिक त्रास के चक्रव्यूह में घिरा पा कर, बौखलाहट में — वह युद्ध का बिगुल बजा देता है !
मन के इस “स्वघोषित युद्ध” में आपका शत्रु – कोई रिश्तेदार हो सकता है, या पड़ोसी या ऑफ़िस में कोई व्यक्ति। कई बार व्यक्ति नहीं, कोई परिस्थिति ऐसी हो सकती है जिसे जजमेंटल प्रवृत्ति ने जटिल बना दिया हो।
कई बार मन की यह एरर (error) इतनी ढकी छुपी होती है कि आप महसूस भी नहीं कर पाते कि कब “जजमेंटल” हो रहे हैं और कब “परख” रहें हैं। इंसानों के साथ डील करते समय “अपने व्यवहार को परखना” एक बहुत जटिल मामला है (क्योंकि हमारे ईगो के पास ख़ुद को सही ठहराने के सैंकड़ों तरीक़े होते हैं) इसलिये अपने आप को परखना है तो निर्जीव चीज़ों के साथ अपना रवैया देखिए।
कैसे?
कबीर का वह दोहा सुना होगा न
"जाति न पूछिए साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान मोल करो तलवार का, पड़ी रहन दो म्यान"
आप कहेंगे अब कहाँ तलवारें और म्यान पसंद करने की ज़रूरत पड़ती है! नहीं पड़ती, पर चाय का कप तो पसंद नापसंद का होता होगा?
* ये कैसा रंग है कप का 😖 इसको देख कर चाय पीने की इच्छा ही ख़त्म हो जाती है 😏
* ये कैसी प्लेट है 😖 देख कर लगता है खाना भी बेकार होगा 😏
पसंद ना-पसंद होना एक बात है पर चेक कीजिये कि ऐसी छोटी छोटी चीज़ों पर भी क्या मन “अड़ना” चुनता है?
कप का रंग/प्लेट की शेप अगर मन में ऐसे “😖” भाव लाती है तो जान लीजिये के मन इसी समीकरण का इस्तेमाल बाक़ी जगहों पर भी करेगा!
* ये पड़ोस की काली सी आँटी हैं 😖 — इनके हाथ का खाना भी ऐसा ही होगा 😏
* बहु को देखा है उनकी, टिपटॉप रहती है — घर नहीं सम्भालती होगी 😏
* कविताएँ लिखती है — ज़रूर कोई चक्कर होगा
* मैंने “उनको” टोक दिया था तो “बुरा तो लगा होगा” अब “मुझसे चिड़ते होंगे”! चिड़ते रहें… हम भी “अब बात नहीं करेंगे” 😏😏
रुक कर सोचिये कि क्या आपकी सोच का ज़्यादातर हिस्सा — “वैसा हो गया होगा” इसलिए “अब हम ऐसा करेंगे” की तर्ज़ पर चलता है?
अगर आपकी सोच का आधार क़यास/अनुमान/assumptions है और ये सब आपको सिर्फ़ लोगों और परिस्थितियों की बुराई दिखाने का ही काम करते हैं तो, आप — जजमेंटल हैं!
जजमेंटल होने की कुछ स्पष्ट निशानियाँ है सोचने का यह ढंग –
* दुनियाँ में दो ही तरह के लोग होते हैं. वे या तो पूरे अच्छे होते हैं या पूरे बुरे।
* किसी का “बस एक अंदाज़” बता देता हैं के “इंसान” कैसा हैं।
* हम बुराई नहीं करते “सच बोलते हैं” इसलिए “चुभते हैं”
* पूरी नज़र रखते हैं हम “कब तक वो अच्छे बने रहते हैं”
* नयी जगह हो या नया इंसान — हमसे किसी की बुराइयाँ नहीं छुपती, अजी हम तो उड़ती चिड़िया के पर गिन लेते हैं!
* कोई हम पर हावी होने का सोचे भी, उस से पहले ही उनकी कमजोर नस दबा देते हैं हम!
* पूरी राम कहानी सुनने की जरुरत नहीं पड़ती हमको। हम वो है जो खत का मजमून भांप लेते हैं लिफाफा देख कर!
* किसी पर भरोसा नहीं करते हम, कोई अच्छा है तो समझ जाइये के अपना कुछ मतलब निकलने आया है!
* स्पष्ट बात करने वाले ही पसंद है हमको तो (क्योंकि उनको फटाक से अच्छे/बुरे की कैटेगरी में डाला जा सकता है, परखने का हम में धैर्य कहाँ)
* पता नहीं क्यों… मुझे तो कोई कुछ बताता ही नहीं !
* “सब अच्छे हैं बस हम ही किसी लायक नहीं…” वाला डायलॉग तैयार रहता हैं, तो यह भी विनम्रता का नकाब ओढ़े हुए जजमेंटल प्रवृत्ति ही हैं!
जजमेंटल होना हमारे मन की App में आए एरर (error) की तरह हैं जिसे दूर करना ज़रूरी हैं वरना ये एरर (error) जब-तब आपकी ज़िंदगी को ठप्प करने का काम करती रहेगी।