स्त्री ही स्त्री की सबसे बड़ी शत्रु – सत्य और तथ्य
“जो चीज़ प्रचुरता में ना मिले उसकी भूख बाकी रह जाती है” यह बात हमारे जीवन से जुड़ी हर वस्तु, हर भाव पर लागू होती है।
ऐसे ही कुछ अति महत्वपूर्ण भाव हैं – सम्मान, स्वाभिमान, और निजी निर्णय लेने की स्वतंत्रता जो हमारे समाज में आज भी स्त्रियों को इतनी मात्रा में नहीं मिलती कि वे ‘तृप्त’ हो सकें।
समाज की व्यवस्था का आधार “सह-जीवन” होता है यानी इस व्यवस्था के हर अंग को कुछ पाने के साथ कुछ देना भी होगा। सह-जीवन की संकल्पना का मूल आधार स्त्री पर आकर ही टिकता है क्योंकि परिवार समाज की इकाई है और स्त्री परिवार की धुरी, उसे मूल बन कर इस सह-जीवन के पूरे वट को सींचना है। देने की शुरुआत उसी को करनी है, इसीलिए उसे सदा “देना” सिखाया जाता है परन्तु याद रखिये, वही जड़ें अपने वट वृक्ष को पाल सकतीं हैं जिन्हें सही समय पर स्वयं को स्थापित करने का अवसर मिला हो। आप कमजोर जड़ों से नैतिकता के नाम पर अपेक्षाएं तो लगा सकते हैं पर इच्छित परिणाम नहीं पा सकते क्योंकि यह प्रकृति का नियम ही नहीं है। मजबूत वृक्ष चाहिये तो जड़ों का सुदृढ़ होना प्रकृति की पहली शर्त है।
हमारी संस्कृति स्त्री को ‘देने वालों’ की श्रेणी में रखती है. यानी उस से यह अपेक्षा है कि वह प्रेम दे, सहनशीलता का परिचय दे, संबंधों को पोषण दे। पर याद रखिये कि औरों को कुछ ‘देने की स्थिति’ में दो ही लोग होते हैं –
या तो वे जो स्वयं तृप्त हों ।
या वह वैरागी मन जो तृप्ति-अतृप्ति के भाव से ऊपर उठ गया हो!
दूसरी स्थिति आना तो इतना सहज है नहीं और रही बात पहली स्थिति की, तो सरल तो वह भी नहीं है !
स्त्री को प्रकृति ने वे हार्मोन्स दिए हैं जो ” ख्याल रखना जानते हैं” जो उसे मातृत्व का भाव देते हैं और संवेदनशीलता देते हैं ताकि वह अपने आस-पास के हर जीवन को पोषण देने में कुशल हो सके। यह बात उसे कुछ कार्यों के लिए अधिक ‘विशिष्ट’ बनाती हैं, इसी तरह पुरुषों को मांसपेशीय बल अधिक मिला है ताकि वे बाहर के कार्यों का दायित्व उठा सकें। उन्हें मातृत्व का भाव कम मिला है ताकि वे बाहर की दुनिया में अपने परिवार के हितों की रक्षा और व्यवस्था करते समय संवेदनशीलता से ऊपर ‘तर्क’ को रख सकें।
संवेदनशीलता की मात्रा कम और अधिक देना यह एक ‘प्राकृतिक व्यवस्था’ है जो मानव शरीर में कुछ हार्मोन्स के द्वारा संचालित होती हैं। परन्तु प्रकृति ने स्त्री या पुरुष किसी को भी संवेदनशीलता से पूर्णतः वंचित रखा हो ऐसा नहीं है। ठीक इसी तरह तार्किक बुद्धि भी दोनों को मिली हैं। हार्मोन्स ने सिर्फ प्राथमिकताएँ तय की हैं कि स्त्रियाँ ‘भावनाओं’ को तवज़्जो देंगी क्योंकि उन्हें पोषण देना हैं, क्योंकि उन्हें जीवन की कोमलताओं को सँभालने के दायित्व मिले हैं वहीँ पुरुष ‘तार्किकता’ को प्राथमिकता देते हैं ताकि जीवन को सुरक्षित रखने के दायित्वों को संभाल सकें।
पर यदि आप पुरुषों से संवेदनाएँ अनुभव करने के अधिकार छीनने का प्रयास करेंगे तो यह गलत है! ठीक इसी तरह यदि आप स्त्रियों से तर्क करने, निर्णय लेने के अधिकार छीनने या उन्हें दबाव में रखने का कार्य करते हैं तो यह अन्याय है।
यदि कहीं इस अन्याय का मुखर प्रतिकार होता न भी दिख रहा हो, वहां भी मन में विद्रोह अवश्य पनप रहा होता है और यही दबा हुआ विद्रोह कुण्ठा का रूप करता है। कुंठाएं क्योंकि दबी हुई अतृप्त इच्छाएं होती हैं इसलिए उनका प्रकट होने का तरीका भी परोक्ष होता है।
स्त्री को स्त्री होने के कारण निर्णय लेने के अधिकार से वंचित रखना, अपनी बात, अपना तर्क रख सकने के अधिकार से वंचित रखना यह मन में एक दबी हुई, पर एक जागृत प्यास का रूप ले लेती हैं। हमारे आस-पास बहुत सारे मन ऐसे ही अतृप्त प्याले हैं जो ख़ुद अभी भरे नहीं हैं और जहाँ भी, जब भी गुंजाइश दिखती है ये प्याले स्वयं को भरने की जद्दोजहद में लग जाते हैं।
प्यार मिले तो पहले मुझे मिले!
इज़्ज़त मिले तो पहले मुझे मिले!
अधिकार मिले तो पहले मुझे मिले!
निर्णय लेने का मौक़ा मिले तो पहले मुझे मिले!
“मेरे तृप्त होने से पहले अगर किसी और को मिलने लगा तो मैं तो प्यासी ही रह जाऊँगी” यह ‘असुरक्षा’ स्त्री को ‘डाह’ का अंधापन देती है और उसे लगता है मेरे प्रतिद्वंदी का प्याला गिरा ही क्यों ना दूँ ! या क्यों ना उसे इतना विचलित कर दूँ कि वह संतुलन ही ना बना पाए और उसका प्याला ख़ुद ही गिर जाए। फिर सब मुझे मिलेगा… फिर मैं तृप्त हो सकूँगी !
अब बेशक, इस मनोवृति को नैतिक रूप से ग़लत ठहरा लीजिए मगर यह प्राणियों का ‘आधारभूत सिस्टम’ है जो इसी तर्ज़ पर काम करता है। इसका पूर्ण इलाज अतृप्त लोगों को नैतिकता का पाठ पढ़ा कर और महानता की अपेक्षा रख कर नहीं हो पाएगा।
हमें वह माहौल बनाना पड़ेगा जहाँ सबके प्याले भरे जा सकें। जब सबको भरोसा हो कि दूसरे के प्याले में जो डल रहा है वह मेरे हिस्से का नहीं हैं। यानी सरल शब्दों में कहूँ तो स्त्री पुरुष के बीच काम के बँटवारे को ‘सहूलियत और व्यवस्था’ के रूप में देखा जाए ना की काबिलियत/श्रेष्ठता के मापदण्ड के रूप में।
जब कुछ पीढ़ियाँ इस तरह की परवरिश पाएँगी तब यह बदलाव समाज में पूरी तरह दिखने लगेगा। पीढ़ियाँ इसलिए कह रहीं हूँ क्योकिं हम अपने गहरे अनुभव को अपने जींस की मेमोरी में कैरी करते हैं यानी जो हमारे साथ नहीं हुआ, जो होते हुए हमने देखा भी नहीं फिर भी उस बात का असर हमारे मन पर, हमारे व्यवहार में मौजूद हो सकता है!
वजह…?
वजह ये हो सकता है कि ये सब हमारे परिवार की दो पीढ़ी पहले होता रहा था और हम अपने पूर्वजों के वे ‘जींस कैरी कर रहें हों !
“संवेदनशीलता कमजोरी और मूर्खता की निशानी है और इसलिए स्त्रियों को पुरुषीय निर्देशन में रहना आवश्यक है” इस सोच को मिटाने की आवश्यकता है।
जीवन के हर क्षेत्र पर काबिज़ पुरुषीय निर्देशन में जब भी थोड़ी सी ढील मिलने की गुंजाईश दिखती है तो परिवार की स्त्रियों में उस टुकड़ों में मिले हुए अधिकार के लिए होड़ सी मच जाती है। फिर वह जीवन के उत्तरार्द्ध में आयी स्त्री सास वाली भूमिका में हो या कार्यक्षेत्र में अपनी अधीनस्थ कर्मचारियों से काम लेती मैनेजर की भूमिका निभाती स्त्री। उसके मन की अतृप्ति का कारण उसके निजी अनुभव हो या वे स्मृतियाँ जो उसके जींस कई पीढ़ियों से संचित हैं। अब वह निर्णय लेने के इन छोटे-छोटे अवसरों को अपने हाथ में लेना चाहती हैं पर इच्छा अकुलाहट बन जाये तो भ्रमित कर देती हैं! और वह अधिकारों का अर्थ यह समझने लगती हैं कि ‘किसी और स्त्री के अधिकारों को अपने नियंत्रण में ले लें ‘ जबकि अब उसे अपने अधिकारों का प्रयोग इस दूसरी स्त्री को उसके अधिकार दिलवाने में करना था! परन्तु कुंठाएं विवेक को धुंधला कर देती हैं!
यही कारण है कि हमें मूल पर काम करना होगा… मन में बसी इन कुंठाओं के पूरी तरह निकल जाने तक कार्य करना होगा। परिवर्तन आ रहा है और आएगा भी परन्तु जहाँ सोच बदलने में समय लगता है वहीं किसी सोच को ‘मिटने’ में युग लग जाया करते हैं इसलिए तब तक प्रतीक्षा कीजिए और प्रयास भी !