डिप्रेशन – जब अपने ही भीतर रूठ जाये कोई!
मैं बहुत सहनशील हूँ, सब बर्दाश्त कर के भी रिश्ते निभाना आता है मुझे। ना-ना मैं कभी किसी को पलट कर जवाब नहीं देती! क्लेश नहीं शांति चुनती हूँ! किसी को तो रिश्तों की नींव बनना ही होगा ना, जो रिश्तों की नींव बनेगा उसे तो अपनी इच्छाओं को अँधेरी जमीन में दफ़न करना ही होगा…! पर सच कहूं, तो सब-कुछ करते करते थकने लगी हूँ मैं. उदास रहती हूँ, कहीं बाहर जाने का मन नहीं करता…किसी से मिलने का मन नहीं करता। आजकल सुना है डिप्रेशन कहते हैं इसको। उदास तो कोई भी हो सकता है तो उदासी भी भला कोई रोग हुई?
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डिप्रेशन आम सी उदासी है या भयंकर रोग?
अगर यह प्रश्न आपका भी है तो ये जान लीजिये की डिप्रेशन दरअसल दो दोस्तों के एक दूजे से रूठ जाने की कहानी है। इन दोस्तों का अता-पता आपको दें, उस से पहले यह जान लेते हैं की ये नाराज़गी है कैसी…!
मान लीजिये आपकी कोई दोस्त है और आप देख रही हैं कि उसकी कोई आदत ऐसी है जो उसके लिए अच्छी नहीं है। आप उसे समझाती हैं कि उसे ऐसा नहीं करना चाहिए। उसे क्या करना चाहिए यह भी बताती हैं। वह सब सुनती है, सहमत भी होती है, पर अपनी आदत बदलती नहीं और उस आदत से ख़ुद ही परेशान भी होती रहती है। वह रोज़ आपको फ़ोन करती है रोज़ अपना दुखड़ा रोती है, रोज़ आप उसे पुचकारती हैं, सही सलाह देती हैं। ऐसा महीने, दो महिनें,छह महीने, साल भर तक रोज़ होता है।
पहले हफ़्ते, पहले महीने… आप उसके लिए जैसा महसूस करती हैं क्या वैसा ही छह महीने बाद भी महसूस करेंगी?? क्या छह महीने होते-होते आपका दुलार झल्लाहट में नहीं बदलने लगेगा? साल होते-होते तो शायद आप उसके फ़ोन उठाने ही बंद कर देंगी! उस से ज़्यादा समय तक अगर यही चलता रहा तो शायद उसका नम्बर ही ब्लॉक कर दें। अपने फ़ोन में उसके नाम की मिस्ड कॉल भी आपको स्ट्रेस देने लगेगी। उसका रोज इस तरह रोना, परेशान होना, उसके साथ-साथ आपको भी इतना विचलित कर चुका होगा की इन सब का असर आपके दूसरे कामों पर आने लगेगा।
इस कहानी में वह परेशान दोस्त ‘मन’ है और उसकी जो दोस्त हैं वह है ‘दिमाग़’
मन रोज़ अपने दुखड़े ले कर जाता है दिमाग़ के पास। दिमाग़ रोज़ कई विकल्प रखता है उसके आगे। मन को हर विकल्प से डर लगता है। मन अपना पुराना रवैया क़ायम रखता है। वैसे ही रहना, रोज़ परेशान होना, रोज़ रोना, रोज़ दिमाग़ को शिकायत करना, दिमाग़ के सुझावों से सहमत होना, पर उन पर अमल न करना।
और छह महीने…साल बीतते बीतते दिमाग़ थक जाता है। अब वह मन से बात ही नहीं करना चाहता। मन को ब्लॉक भी करने लगता है। जैसे ही मन फ़ोन लगाता है, दिमाग़ अपना ‘shut-down mode’ ऑन कर देता है…कहता है नींद आ रही है मुझे। किसी काम में उत्साह नहीं जगाता क्योंकि वह जानता है की जैसे ही मन से बात की और उसका वही रोना धोना चालू हो जाएगा। वह जानता है मन अपने लिए कोई क़दम नहीं उठाने वाला है तो उस से फ़िज़ूल माथापच्ची कर के क्या फ़ायदा? नतीजा यह कि दिमाग़ मन से दूरी बनाने लगता है। मन और दिमाग़ का यही अबोलापन ‘डिप्रेशन’ है !
अब मन को कोई सुझाव, कोई सहायता नहीं मिलती है दिमाग से. कोई और व्यक्ति भी अगर कुछ सुझाव दे तो दिमाग उसे सुनता तो है पर मन को वह सब करने के लिए नहीं कहता क्योंकि दिमाग को यह यकीन सा हो चुका है कि ‘मन’ को कुछ भी कहने का कोई फायदा नहीं है। मन और दिमाग की यह बढ़ती दूरियां और अबोलापन मन को बहुत-बहुत अकेला करती चली जाती है।
हालाँकि, इस तरह खुद को कट ऑफ रख के दिमाग भी कोई आराम से नहीं रह रहा होता। वह भी अपनी हर गतिविधि को धीमी कर देता है ताकि उसे मन की किसी उलझन के संपर्क में न आना पड़े। मन और दिमाग के बीच का यह घटता संपर्क, धीमी पड़ती क्रियाशीलता… एक लम्बे समय तक रह जाये तो यह गंभीर रोग का रूप ले लेती है। यही है क्लिनिकल डिप्रेशन। जहाँ दवाएँ देनी पड़ती है ताकि दिमाग के तंतुओं को अपना रोजमर्रा का काम करने के लिए फिर से एक्टिव किया जा सके।
उदासी रोग नहीं है, पर अगर आपको लग रहा है कि आपके उदास रहने की अवधि बढ़ती जा रही है तो सावधान हो जाइये!
क्योंकि इसका मतलब यह है कि आपके मन का सबसे विश्वसनीय मित्र यानी आपका दिमाग अब उस से रूठने लगा है ! आपका दिमाग यानी आपकी तर्कशील बुद्धि आपकी पहली और सच्ची मित्र है, जब पहली बार आपके साथ कुछ गलत होगा वह उसी वक़्त आपको सजग करती है! आपकी सुरक्षा के लिए त्वरित सलाह वहीँ से आती हैं। पर यदि आप लगातार उसकी सलाहों को अनसुना करते चले जायेंगे और अपने साथ अन्याय/दुर्व्यवहार/असहज व्यवहार के आगे झुकते चले जायेंगे तो आपके साथ हर सांस पर मौजूद रहने वाला आपका यह मित्र रूठने लगेगा और एक दिन इतना रूठ जायेगा कि डॉक्टर और दवाओं की सहायता से भी इसे मनाने में शायद बरसों लग जाये। इसलिए अब जब भी यह आपको अपने लिए कदम उठाने के लिए कहे तो इसकी बात का मान रखा कीजिये…क्योंकि सच्चे मित्रों को यूँ नाराज नहीं करते।
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