परवरिश (Parenting)

ये है असर मेरी उम्र का…

"ये है असर मेरी उम्र का, मेरे मन पर 
के हर बात मुझ पर बे-असर क्यूँ पापा..."  

तुनकमिजाज बच्चे! बेतरतीब बच्चे! कभी पलट कर जवाब देते हुए बच्चे! कभी कंधे उचकाकर, बिना जवाब दिए चले जाने वाले बच्चे..! हमारे बच्चे। अभी कुछ दिन पहले तक ये ऐसे नहीं थे अब न जाने क्या हुआ है!! किस बात पर खुश होंगे…किस बात पर मूड उखड़ जायेगा कुछ पता नहीं! मजे कि बात तो ये है कि खुद इन्हें भी पता नहीं है। ये उम्र का वह पड़ाव है जहाँ एक कदम अभी बचपन में जमा हुआ होता है तो दूसरा जवानी की दहलीज पर बढ़ गया है। बचपन-जवानी की इसी देहरी पर खड़े रहना है इन्हें अगले पांच-सात साल।

कैसे समझें इनको जो खुद अपने को नहीं समझ पा रहें हैं? स्नेह और अनुशासन की डोर जिसमें बंधे हुए अब तक सब आराम से चल रहा था, उससे कैसे बाँधे रखें अब इनको? इनके पंख निकल आये हैं… उड़ने को मचलते हैं और उड़ना जानते भी नहीं। यह वह समय है जब बच्चों के साथ आपका रिश्ता बहुत नजदीकी का होना चाहिए और यही वह समय भी है जब वे आपके नजदीक रहना नहीं चाहेंगे। इस उम्र में उनको माता पिता की बातें “दखलअंदाज़ी” लगने लगती हैं। हमारे बच्चे जो अपने दोस्तों के आगे खुली किताब बन कर रहते हैं… सोशल मीडिया के विभिन्न जरियों  से उनसे घंटों बतियाते रह सकते हैं… इन्हीं बच्चों से जब माँ पूछती है कि आज स्कूल में कैसा रहा तो इनके पास शब्द ख़त्म हो जाते हैं या किसी छोटी सी बात पर टोक दिया जाना इनके लिए खीज जाने या रो देने की वजह बन जाता है।

इनको ले कर आपकी हर फ़िक्र, इनसे आपकी हर शिकायत जायज़ है। पर उनका बर्ताव भी बे-वजह नहीं ! कुछ है जो बदल गया है इनमें, और जिसने इनके हर अंदाज को बदल दिया है। आपको भी परवरिश के अंदाज को जरा सा बदलना है। कैसे? आइये जानते हैं-

1. उन्हें सुनिये, हर रोज!

अगर आप वाकई जानना चाहते हैं कि उनकी जिंदगी में क्या चल रहा है तो इसका जवाब आपको सीधे पूछने पर शायद न मिले लेकिन अगर आप हर रोज उनकी बातों को सुनने की आदत रखें तो आप पाएंगे कि वे हर उस चीज का जिक्र आपके सामने करते ही हैं जो उनकी जिंदगी में चल रही हैं। बच्चों को शुरू से अपनी हर बात मम्मी/पापा को कहने की आदत होती है और ऐसा नहीं है कि बारह वर्ष की उम्र में कोई बटन दब जाता है और अचानक से बच्चे बातें छुपानी शुरू कर देते हों। वे अभी भी सबकुछ आपको बताना चाहते हैं बशर्ते –

  • आप हर छोटी बड़ी बात उनसे “सच उगलवाने” के अंदाज़ में न पूछें।
  • जब वे कुछ बताना/बोलना शुरू करें तो उनकी पूरी बात सुने बिना बीच में ही अपनी प्रतिक्रिया देनी न शुरू कर दें  (जिससे की वे आमतौर पर सहमत नहीं होते) नतीजा – उनका झल्ला जाना और आपका भी गुस्सा होना.
  • उनकी पूरी बात बिना दखलअंदाज़ी के सुनने की आदत डालिये। अगर आप रूचि लेकर उनकी पूरी बात सुनेंगे, बीच में टोकेंगे नहीं और उस विषय पर उनकी राय को गलत ठहराने की जल्दबाज़ी नहीं करेंगे तो वे आपके साथ खुल कर हर बात करते रहेंगे।

 2. उनकी भावनाओं को जायज़ समझिये

बच्चा परेशान होता है और हम उसकी परेशानी सुलझाने में लग जाते हैं, वह निराश होता है तो हम उसे दुलारने में लग जाते हैं… यही चलता रहता है, जन्म से लेकर ग्यारह बारह साल तक। पर इसके बाद कुछ बदलने लगता है। अब जब वह किसी परेशानी का जिक्र करता है और आप उसे कुछ ऐसा कहते हैं-

“छोड़ न तूँ ऐसा सोच ही मत…” 

“इसमें इतना क्या परेशान हो रही है ये तो छोटी सी बात है…”

“कोई बात नहीं नंबर कम आ गए तो अगली बार कवर कर लेना… “

बच्चे को रिलैक्स हो जाना चाहिए था, मुस्कुरा देना चाहिए था पर नहीं ! आपको तुरंत खीज और झल्लाहट भरे लहजे में ये सुनने को मिलेगा – मम्मा… रहने दो आप कुछ नहीं समझते!!! और वे तुनक कर वहां से चले जाएगा। आप सोचते रह जाएंगे कि आपने गलत क्या कह दिया ??? और अगर आप स्वयं भी भावनात्मक रूप से परिपक्व नहीं हैं तो उनके ऐसे बर्ताव के तुरंत बाद या तो आपकी गुस्से से भरी आवाज घर में गूँज उठेगी या शायद आपकी आँखों में अपमान के आँसू होंगे।

तो क्या करना चाहिए ?

जब वे किसी बात को ले कर अपनी नाराजगी जाहिर करें तो उनकी उस क्षण की भावना को उसी पल रिजेक्ट मत कीजिये “तू बेकार ही परेशान हो रहा है” आप उनको अच्छा महसूस करवाने के लिए यह कहते हैं पर उन तक सन्देश यह जाता है कि उनकी भावनाएँ “बेकार” हैं ! उनको जो चीज बुरी लग रही है वह “फालतू ही बुरी लग रही है” और “जो कुछ भी हुआ है उसमें वे ही गलत हैं”

आप हैरान होंगे कि ये सब आपने कब कहा ?? पर इस उम्र का मन अति संवेदनशील होता है. वैसे ही जैसे अगर किसी हिस्से से स्किन उतर जाये तो नीचे वाली कच्ची चमड़ी पर हर रगड़, तापमान तेज महसूस होता है वैसे ही इस उम्र के बच्चों को हर बात “तीव्र महसूस” होती है। इसलिए जब वे दुखी/नाराज़ हों तो उस वक़्त पहले सिर्फ इतना कहिये “ओह सच में ये तो बहुत बुरा लगा होगा तुमको” ; जब वह स्कूल से आकर अपनी शिकायतों का पिटारा खोले तो सुनिए और कहिये “ओह मेरा बच्चा कितना परेशान है”

बाद में आप इन सभी विषयों पर समझदारी से बात कर सकतीं हैं पर उस समय जब वे व्यथित हों उस वक़्त उनकी व्यथा को व्यथा के तौर पर स्वीकृति दीजिये।

3. उन पर भरोसा दर्शाइए

किशोरवय के बच्चे चाहते हैं कि उनको गंभीरता से लिया जाये – खासतौर पर उनके माता-पिता के द्वारा। अपने किसी काम को उन्हें करने के लिए कहिये जिससे उनको लगे कि आप उन पर भरोसा करते हैं। ऐसा कोई काम जो उन्होंने आपके लिए किया हो उसके लिए अपनी “तसल्ली” जाहिर किया कीजिये जैसे “चलो अच्छा है बेटा ये तूने संभाल लिया” या किसी सामान्य सामाजिक/पारिवारिक विषय पर उनकी राय मांगिये “सोनू तुमको क्या लगता है क्या करना चाहिए”

ऐसे वाक्य उनका आत्मविश्वास भी बढ़ाते हैं और आपके साथ उनकी “अंतर्निर्भरता” भी यानी उनको ऐसा नहीं लगता कि अपने काम में दूसरे की सलाह लेना “कमजोरी” या “छोटे बच्चे” होने की निशानी है। वे “सहयोग” शब्द के मायने समझते हैं और नतीजा यह कि वे अपने मसलों  पर आपकी राय लेने में झिझकेंगे नहीं।

4. तानाशाह मत बनिए

अभी भी वे बच्चे ही हैं इसलिए आपको उनके लिए कुछ नियम कायदे तय करने होंगे। जो भी नियम आप उन पर लगाएँ, उनका कारण बताने के लिए भी तैयार रहें।  खुद को बड़ा समझने के लिए वे अपनी हद को आगे बढ़ाना चाहेंगे ऐसे में आपके पास अपने नियमों के लिए मजबूत आधार होना चाहिए। “मुझे नहीं पसंद” “हमारे में ऐसे नहीं होता” “मैंने कह दिया न बस!” जैसे वाक्य आपके और आपके किशोर बच्चे के बीच कड़वाहट भरा विद्रोह या खौफनाक शांति पसार सकते हैं। इसलिए उनकी सुरक्षा को ले कर जो आपकी चिन्ताएँ हैं वे उन्हें बताइये। कोई बीच का रास्ता निकाल कर जहाँ ढील देनी संभव हो वहां दीजिये भी।

5. अपनी भावनाओं पर नियन्त्रण रखिये

अपने ही बच्चों से रुखा व्यवहार मिलने पर आपको गुस्सा आना स्वाभाविक है पर ऐसा होने पर रुकिए और उसी लहजे में जवाब मत दीजिये। किसी बात से परेशान हो कर वे आपा खो रहें हैं और उनके इस व्यवहार से परेशान हो कर आप अपना आपा खो रहें हैं तो “उनका व्यवहार गलत और आपका सही” नहीं कहला सकता ! याद रखिये कि आप परिपक्व वयस्क हैं और वे अपने ही शरीर के भीतर बदलते मौसम (हार्मोन्स) में फँसे हुए अपरिपक्व बच्चे ! आपको अपना संयम नहीं खोना है। आप उनकी परेशानी को तार्किक और व्यवहारिक स्तरों पर परखेंगे और उसके अनुसार अपनी प्रतिक्रिया देंगे।

6. ‘कूल’ पापा बनिये

एक दूसरे के “साथ होने” के लिए बातचीत ही एकमात्र जरिया नहीं होती। आपको अपने बच्चों के साथ मिल कर ऐसी एक्टिविटीज़ करनी चाहिए जिन्हें आप दोनों एन्जॉय करें। ये किचन में कोई नयी रेसिपी ट्राई करना हो सकता है, साथ में मूवी देखना हो सकता है, आप रेसिंग, मैराथन जैसी कोई स्पोर्ट्स एक्टिविटी  साथ में कर सकते हैं। बच्चों के मन में ये एहसास रहना चाहिए कि पापा उन्हें सिर्फ डाँट लगाने या लेक्चर देने के लिए ही नहीं बुलाते! पापा के साथ बहुत से मजेदार काम भी किये जा सकते हैं।

7. उन पर पैनी नज़र रखिये

आपका उनके साथ व्यवहार कितना भी खुला और सहज क्यों न हो पर याद रखिये कि आपके प्यार और विश्वास के अलावा एक और भी ताकत है जो उनके कदमों को खींचती है और वह है उनकी मित्र मंडली  ! इस मित्र मंडली का अता-पता हमेशा अपनी जानकारी में रखिये। बच्चों के फ़ोन और उनके बैग उनकी उपस्थिति में नहीं, पर उनकी गैर मौजूदगी में संभालते रहिये। विश्वास कीजिये, पर आँखें मूँद कर नहीं !

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