परवरिश (Parenting)

इस तरह कीजिये डिज़ाइन नन्हें दिमाग को!

डिजाइनिंग एक्सपर्ट तो आप हैं ही और आपकी ये खूबी हर जगह झलकती हैं आपके घर की साज सज्जा में, आपके ड्रेसिंग में, आपके रिश्तों में और आपके बच्चों के स्वभाव में भी। जी हाँ जाने अनजाने तो अपने बच्चों के दिमाग को डिज़ाइन कर ही रहीं हैं आप…तो क्यों न अच्छे से जान लें उस नन्हे से दिमाग को और सोच समझ कर सही तरीके से करें ये काम !

विभिन्न बाल मनोवैज्ञानिक शोध के नतीजे बताते हैं कि कोई व्यक्ति कितना शांत और सुलझा हुआ होगा ये सिर्फ जीन्स ही तय नहीं करते बल्कि उस व्यक्ति के बचपन के अनुभव खास तौर पर माता-पिता का व्यवहार यह निश्चित करता हैं। तनावपूर्ण स्थिति में खुद को कैसे संभालना हैं इसके लिए हमारा दिमाग बचपन में ही एक सिस्टम तैयार कर लेता हैं और इस सिस्टम के बनने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका होती हैं उन लोगो की जो बच्चे के सबसे नजदीकी होते हैं यानि माता-पिता।

जब ये दुनिया बनी तो इंसान सबसे पहले नहीं आया था, सबसे पहले आये थे रेप्टाइल्स यानि सांप की प्रजाति के कई जीव। दिमाग तो इनके पास भी था और वो दिमाग सिर्फ अपनी जरूरतों को जानता था, सिर्फ अपनी सुरक्षा के बारे में सोचता था। छिपकली देखी हैं न आपने? आप दिवार पर हाथ से ठक-ठक करें या बन्दूक से वो एक जैसी ही प्रतिक्रिया देगी – भाग जाएगी। वो ये आंकलन नहीं करती की खतरा कितना बड़ा हैं, खतरा वास्तव में हैं भी या नहीं। यही रेप्टाइल्स का दिमाग होता हैं जो इस से ज्यादा कुछ नहीं सोचता समझता।

फिर आये मैमल्स, ये वो जीव थे जिनमें भाव (emotions) थे, यानि ये अपने अलावा दूसरों के बारे में भी सोचते थे। ये साथ मिल कर रहते थे, अपने बच्चों का ख्याल रखते थे। पर तर्क बुद्धि नहीं थी इनमें !

फिर आया इंसान… सबसे तेज दिमाग जिसके पास तर्क था, जो जानता हैं कि कब स्थिति को बदलना हैं और कब स्थिति के सामने खुद ढल जाना हैं।

अगर आपको लगता हैं कि रेप्टाइल्स का दिमाग बस सांप-छिपकलियों के ही पास होता हैं और मैमल्स वाला दिमाग सिर्फ बन्दर-भालू के पास ही होता हैं तो ये जान लीजिये कि वे दोनों दिमाग आज भी हमारे इस सुपर श्रेष्ठ दिमाग के अटूट हिस्से हैं ! और ये जो हमारे नन्हें मुन्ने हैं ये अपना सफर इन्हें दिमागों के सहारे शुरू करते हैं !

ये तीनों हिस्से जन्म के समय से ही बच्चे के दिमाग में मौजूद होते है पर इनमें सम्बन्ध (wiring) होना अभी बाकी होता हैं। यही वजह हैं कि नवजात बच्चों को सिर्फ अपनी भूख-प्यास, तकलीफ आदि से मतलब होता हैं। नवजात शिशु को भूख लगेगी तो वह रोयेगा उसे इस बात से कोई मतलब नहीं होता कि माँ थकी हुई हैं या सो रही हैं या कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर रही हैं। (रेप्टेलियन दिमाग जो बस अपनी जरुरत से मतलब रखता हैं) और इस समय बच्चे को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसे कौन गोद में ले रहा हैं अगर वह स्थिति आरामदायक हैं तो वह नहीं रोता।

यही बच्चा थोड़े समय बाद किसी भी अजनबी को देख के माँ के पीछे छिपना शुरू करता है, अकेले रहने से डरता हैं फिर जब उसे स्कूल भेजना शुरू किया जाता हैं तो शुरू में माँ या परिजनों से दूर रहने को तैयार नहीं होता, रोता हैं। इस समय नियंत्रण मुख्यतःदिमाग के mammalian वाले हिस्से के पास होता हैं इसलिए बच्चा तर्क नहीं समझता जो चाहिए बस वो चाहिए। छोटी छोटी बातों पे परेशां होना और छोटी छोटी बातों पे खुश होना यही हैं न बचपन?

ऐसा इसलिए क्यों की तार्किक हिस्से ने अभी नियंत्रण अपने हाथ में नहीं लिया हैं। तार्किक दिमाग व्यवहार को निर्देश देना शुरू करें इसके लिए पहले तार्किक दिमाग की प्रोग्रामिंग होती हैं। पहले वाले दोनों हिस्सों को किसी प्रोग्रामिंग की जरुरत नहीं थी पर इन हिस्सों का सम्बन्ध तार्किक हिस्से से धीरे धीरे जुड़ता हैं।

बहुत नाज़ुक और महत्वपूर्ण समय होता हैं ये क्योंकि अब सब कुछ बच्चे के अनुभवों पर निर्भर करेगा। वें अनुभव जो उसे आप से मिलने हैं!

आपके बच्चे का आपके साथ का हर अनुभव निचले स्तर के दिमाग की कोशिकाओं को ऊपर वाले तार्किक हिस्से की कोशिकाओं से जोड़ रहा होता हैं। एक वायरिंग हो रही होती है…. दिमाग में सर्किट बन रहा होता हैं।

आप बच्चों के दिमाग में तर्क की वायरिंग करते हैं या तनाव की – ये आपके ही व्यवहार पर निर्भर करता हैं। कैसे? इन दो उदाहरणों में देखिये –

परिस्थिति : तीन साल के राहुल को घर के बाहर पड़ी एक टॉफ़ी मिली वो उठा कर अभी उसे मुँह में रखने ही वाला था कि पापा ने छीन कर फेंक दी। इतनी पास आयी टॉफ़ी के छिन जाने से राहुल बौखला गया (रेप्टिलियन दिमाग के पास हैं नियंत्रण- अपना आहार छिन जाये तो सबसे पहले वह आक्रोश की प्रतिक्रिया सुझाएगा) राहुल चिल्लाया, “मेरी टॉफ़ी क्यों फेंकी !!! मुझे चाहिए वो…. अभी चाहिए !

अब?                                                                                                    

दृश्य १

पापा उस से भी जोर से चिल्लाये, “दिमाग ख़राब है तुम्हारा !

कहीं से भी कुछ भी उठा के खा लेते हो !! बेवकूफ !!

राहुल का रोना शुरू (मैमेलियन दिमाग ने भावनाओं का नल खोल दिया )

मामला अंदर मम्मी तक भी पहुंचा, जोर जोर से रोते हुए राहुल ने दुखड़ा सुनाया कैसे पापा ने टॉफ़ी छीन के फेंक दी। पापा का गुस्सा और भी भड़का की अभी तक इस बेवकूफ को समझ नहीं आया कि क्या खाना हैं क्या नहीं खाना। “इतनी चीजे दिलाते हैं फिर भी ऐसे कर रहा हैं ! कुछ नहीं दिलाया जायेगा आगे से इसको अब”

मम्मी ने भी समर्थन कर दिया ऐसे कैसे बाहर से उठा ली टॉफी ! “गंदे बच्चे” करते हैं ऐसा तो !

रोना धोना सब व्यर्थ गया ऊपर से सजा सुनाई गयी की कोई टॉफी नहीं दिलाई जाएगी अब से। पार्क ले जा रहे थे पापा सो भी कैंसिल हो गया।

दिमाग पर असर: दुःख, पीड़ा, गुस्से वाले हार्मोन्स स्त्रावित हुए निष्कर्ष निकला – लोग अपनी मर्जी से कभी कुछ भी छीन सकते हैं टॉफी भी और खेलने का अवसर भी। सब बुरे हैं।

सर्किट बना:  इच्छित वस्तु नहीं मिली –> दुखी हो जाओ, गुस्सा करों

दृश्य २

टॉफी छिन जाने से बौखलायें राहुल का पापा ने हाथ थामा, प्यार से उसे शांत किया, उसे बताया कि वह टॉफी सड़क पे पड़ी थी उस पर धूल मिटटी सब लगा था। उसको खाने से राहुल का पेट दुखता। अच्छी वाली लाएंगे तब खाना।

ये बात घर पर मम्मी भी समझा सकती थी।

दोनों में से किसी ने भी “क्या” गलत था वो नहीं बताया। राहुल “गलत” है ये बताया।

जैसे फल को बिना धोये नहीं खाना चाहिए पर धो कर खा सकते हैं / सड़क पे पड़ी टॉफी नहीं खानी चाहिए पर दूसरी ले कर खा सकते हैं।

“गन्दा” होता हैं बिना धुला हुवा सेव, सड़क पे पड़ी टॉफी। राहुल “गन्दा” नहीं होता !

कई बार आपको लग सकता हैं कुछ कारण ऐसे होते हैं जो बच्चों को समझ आएंगे ही नहीं तो बता कर क्या फायदा। परन्तु फिर भी जितना हो सके सरलीकरण कर उन्हें प्यार से शांत कर के वे कारण बताने जरूरी हैं।

इसका दिमाग पर असर: वो चीज मेरे लिए अच्छी नहीं थी, इसलिए उस इच्छा को छोड़ना होगा या फिर उस इच्छा को पूरा करने का सही तरीका ये नहीं कुछ और हैं। मम्मी पापा ने मेरा ख़याल रखा, मुझे मुसीबत से बचा लिया…वो मुझे बहुत प्यार करते हैं।

सर्किट बना: इच्छा पूरी नहीं हुई –> अफ़सोस हुआ –> विकल्पों के बारे में सोचा जाये

बच्चो के लिए क्या अच्छा है क्या बुरा ये उन्हें बताना जरूरी हैं पर इस से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं कि हम ये “कैसे” बताते हैं। इस “कैसे” पर उनका सारा स्वभाव निर्भर कर रहा हैं।

 “मैंने कह दिया न बस ! ये कोई जवाब नहीं हैं. इसलिए, तर्क रखिये और तर्क सुनिए भी। माता पिता की हर हाँ या ना के पीछे महज़ उनका मूड नहीं बल्कि कोई सार्थक कारण होता हैं, बस इतना पता होना चाहिए बच्चों को। इससे कल जब वे किसी को हाँ या ना कहने के अधिकारी होंगे तो उन्हें यह पता होगा की अपने मूड के हिसाब से दूसरों को कुछ करने के लिए बाध्य नहीं किया जाना चाहिए।  ‘सही और गलत’ की पहचान बच्चों को उपदेश दे कर नहीं बल्कि स्वयं उदहारण बन कर करवाई जाती हैं, और यही आपको करना हैं।  

आप नियंत्रक की भूमिका में जरूर हैं, पर तानाशाह की नहीं बल्कि एक ऐसे कंप्यूटर प्रोग्रामर की जो इस तरह प्रोग्राम डिज़ाइन करता हैं की फिर जो भी data आये कंप्यूटर खुद सब कुछ सुचारु रूप से कर सके। ऐसे ही, हमारी परवरिश ऐसी होनी चाहिए कि भविष्य में जो भी हालात आये, हमारे बच्चे तनावपूर्ण परिस्थितियों का सही आंकलन कर सकें और सही विकल्प चुन सकें बिना अपना आप खोएं ! कल वे ऐसे स्थिर चित्त व्यक्ति बनें इसके लिए इसलिए आज आपका सजग रहना बहुत जरूरी हैं क्योंकि कल एक परिवार और समाज आपकी परवरिश पर निर्भर करने वाला हैं।

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