सम्भालिये अपने अंदर के मौसम को
(इस ब्लॉग को वीडियो के रूप में देखने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये)
मन की दोनों टीमों भावनाओं और तर्कबुद्धि के बीच का अंतर्द्वंद सिर्फ अनिर्णय की अवस्था ही नहीं देता, अनचाहे निर्णय लेने को बाध्य भी करता हैं. इसका असर सिर्फ हमारी भावनाओ पर ही नहीं पड़ता बल्कि शरीर के अंदर का पूरा मौसम इसकी चपेट में आता है.
क्या हैं शरीर के अंदर का मौसम?
इस मौसम को बनाये रखने के लिए हमारे शरीर के सारे ऑर्गन्स मिल कर काम करते हैं। हमारे शरीर के सभी अंगों को एक निश्चित तरह से काम करने के लिए प्रोग्राम्ड किया गया हैं, और जब वे इस सेट प्रोग्रामिंग के तहत काम करते हैं तो शरीर के भीतर का मौसम संतुलित बना रहता हैं।
शरीर के अंदर का मौसम संतुलित रहना यानी:
- शरीर का एक निश्चित तापमान पर बना रहना
- खून में ग्लूकोस की एक निश्चित मात्रा बने रहना
- एक मिनट में हमारे दिल का एक निश्चित बार धड़कना
- रक्त का एक निश्चित दबाव पर बहना यानी ब्लड प्रेशर मेन्टेन रहना
ये और ऐसी ही कई और चीजे जब एक निश्चित रेंज में रहती हैं तो बॉडी का मौसम स्टेबल बना रहता हैं, लेकिन!! अंदर के मौसम को बनाये रखने से भी ज्यादा जरूरी एक और काम हैं जो टॉप प्रायोरिटी पर रखा जाता हैं और वो हैं “सुरक्षित रहना”!
प्रकृति ने हमारे शरीर की प्रोग्रामिंग में सब से क्रिटिकल मुद्दा “सुरक्षा” को रखा हैं। शरीर के अंगों को निर्देश हैं के सबसे सबसे पहले खुद को सुरक्षित रखने का काम देखना बाकि मौसम वगैरह तो बाद में भी ठीक कर लेंगे। हर जीव की पहली चिंता होती हैं खुद को सुरक्षित रखना।
देखा हैं न जानवरों में, थोड़ी भी आहट हो तो चिड़िया फुर्र से उड़ जाती हैं, कुत्ते के कान कैसे खड़े हो जाते हैं, हिरणों के झुण्ड कैसे चौकन्ने रहते हैं, अगर आप भी अकेले किसी सूने रास्ते पर से गुजर रहें हैं… अँधेरा घिरने लगा हैं तो आपकी चाल में एक अलग तेजी आ जाएगी… आपके कान और आँखें अधिक चौकन्ने हो जायेंगे।
और अगर, ऐसे में आपको यह आभास हो गया के कोई पीछे आ रहा हैं तो!!
- आपकी सुरक्षा के लिए हर अंग अपने उस निश्चित मौसम को डिस्टर्ब कर लेता है यानि
- पैन्क्रीअस आपके रक्त में ज्यादा ग्लूकोस छोड़ देगा ताकि आपको तेज चलने के लिए एक्स्ट्रा एनर्जी मिल सके, आपके फेंफड़े साँसे लेने छोड़ने का काम तेजी से करने लगेंगे।
- हार्ट जल्दी ब्लड की पम्पिंग करने लगेगा ताकि अगर दौड़ना या लड़ना पड़े तो कोशिकाओं को खून की कमी न हो जाए, बेशक इस कवायद में आपका ब्लड प्रेशर बढ़ जायेगा।
- आपके दिल की धड़कन बढ़ जाएगी
- इस चककर में साँसे छोटी हो जाएँगी और घबराहट बढ़ जाएगी।
इंसानी दिमाग का सबसे आधारभूत सिस्टम आज भी आदिम युग जैसा ही हैं, और खतरा महसूस होने पर यह अपना मूलभूत रिएक्शन वही रखता हैं चाहे खतरा फिजिकल हो या मेन्टल। यानि आपके भय का कारण ये भी हो सकता हैं की कोई पीछा कर रहा हैं और अब बचने के दो ही तरीके हैं या तो भागो या फिर लड़ो। आपकी घबराहट का कारण यह भी हो सकता हैं के आपको किसी challenging स्थिति का सामना करना हैं चाहे इंटरव्यू, चाहे किसी बहस में खुद को सही साबित करना।
दिमाग का मूलभूत ढांचा इसे ठीक वैसे ही लेता है जैसे फिजिकल खतरे को लेता हैं। उसे बस इतना मतलब हैं के किसी अनचाही परिस्थिति का सामना करने की नौबत आ गयी हैं और वह उस “भागो या लड़ो” वाले बटन को ऑन कर देता हैं, इस बटन के ऑन होते ही शरीर के सारे अंगों को मैसेज चला जाता हैं के भई सेफ्टी इश्यूज आ गए हैं, हमे बाहरी खतरे से निपटना हैं और
ब्लड में शुगर लेवल बढ़ना चालू हो जाता हैं, हार्ट भी तेजी से ब्लड पम्पिंग शुरू कर देता हैं… ब्लड प्रेशर शूट उप हो जाता हैं, लंग्स क्यों पीछे रहेंगे? वे साँसे तेज-तेज लेने लगते है भले ही टूटी फूटी जैसी भी, जितनी भी आये। जब साँसे पूरी नहीं ली तो ब्रेन में ऑक्सीजन लेवल गड़बड़ाने लगता है और आपने अपने प्रेजेंटेशन के लिए अपने विचारों का जो सिस्टेमेटिक ढांचा आपने तैयार किया था वो सारे व्यवस्थित विचार उथल पुथल से हो जाते हैं। जैसे किसी तारों के किसी व्यवस्थित सर्किट में तार इधर उधर बेतरतीबी से जुड़ जाएँ तो शार्ट सर्किट हो जाता हैं। वैसा ही कुछ दिमाग में हो जाता हैं क्या कहना था भूल जाते हैं, जुबान लड़खड़ा जाती हैं हम कहते हैं “नर्वस हो गए”
दिमाग के इस सर्किट के सारे वायर्स को अपनी जगह दुरुस्त करने के लिए आपको चाहिए चंद लम्बी गहरी साँसे। बस !
इस “लड़ो या भागो” वाले बटन को रेगुलेट करना बहुत जरुरी होता हैं ताकि भावनाओं और तर्कबुद्धि (emotions & logics) के बीच ये जो शॉर्ट सर्किट वाली चिंगारिया हैं उन्हें रोका जा सके और विवेक आ कर मामला संभाल ले, और आप अपनी बेस्ट परफॉरमेंस दे पाएं, सही निर्णय लें पाएं।
एक सच यह भी हैं के रोज तनाव में रह रह कर हमने तनाव को एक प्रतिक्रिया की बजाय अपने शरीर का स्थायी मौसम बना लिया हैं। जब कोई वास्तविक समस्या नहीं होती तब भी हम पूर्व (past) में हो चुकी बातों की जुगाली शुरू कर देते हैं। या फ्यूचर प्लानिंग के नाम पर आशंकाओं में डुबकियाँ लगाने लगते हैं। यह सब हम बाक़ायदा पूरी भावुकता के साथ सोचते हैं। यानि जो बीत गयी उन घटनाओं को याद कर के अभी भी वही दुःख, वही गुस्सा, वही नाराजगी या वही ग्लानि महसूस करते हैं जो तब हुई थी। भविष्य में क्या बुरा हो सकता हैं वो सब भी पूरी भावुकता के साथ सोचते हैं। जहाँ आपके विचारों को भावनाओं का साथ मिला! वहीँ दिमाग उसे “वास्तव में कुछ गलत” हो रहा हैं की तरह रजिस्टर करता हैं दिमाग के लिए “कुछ गलत” का एक ही मतलब हैं “खतरा” और खतरा हैं यानि “लड़ो या भागो वाला बटन” ऑन करना होगा और वह ऑन कर देता हैं! इसके ऑन होते ही शरीर के सारे सिस्टम्स इमरजेंसी मोड पर आ जाते हैं।
यानि आपने ऐसी बातों को सिर्फ “सोचा” जो फ़िलहाल आपकी समस्या हैं ही नहीं, और आपकी बॉडी आपकी उस काल्पनिक समस्या पर भी उसी तरफ रियेक्ट करने लगती हैं मानों वह सच में हो रहा हो!
अब सोचिये के अगर इस तरह से सोचना आपकी आदत हैं, तो आपका दिमाग आपको “खतरे में” ही मान रहा हैं और आपकी बॉडी के ऑर्गन्स ज्यादातर टाइम इमरजेंसी मोड पर ही रहते हैं यानि,
हमेशा ही ग्लूकोस ज्यादा बनती रहेगी…
हमेशा ही हार्ट ज्यादा पम्पिंग करता रहेगा…
हमेशा ही लंग्स जल्दी जल्दी साँसे लेने के लिए छोटी छोटी साँसे ेते रहेंगे…
हमेशा ही आपके दिमाग के तंतुओं को ऑक्सीजन कम मिलती रहेगी…
हमेशा ही आप नर्वस सा फील करते रहेंगे… तो आ गया न आपके शरीर के मौसम में तूफान!
और सिर्फ आ ही नहीं गया, अंदर ही रच बस भी गया। क्योंकि सारे ऑर्गन्स को इमरजेंसी मोड पर रहने की आदत हो गयी. अब उनको नोर्मल्ली काम करवाने के लिए दवाइयाँ लेनी पड़ती हैं। ये दवाएँ इन अंदरूनी अंगों पर दबाव बनातीं हैं के वे कम ग्लूकोस बनाये या जरा हौले-हौले धड़के… लेकिन आप अपनी आदतें नहीं बदलते और अपने विचारों में भावनाओं का जूस मिला कर एक से एक बुरी बात की जुगाली चालू रखते हैं।
नतीजा? एक तरफ, आपका दिमाग आपके शरीर को लगातार इमरजेंसी मोड पर रहने के निर्देश देता रहता हैं, दूसरी तरफ दवाएँ ऑर्गन्स को मजबूर करती रहती हैं के इमरजेंसी मोड पर न आएं! आप समझ रहें है न कैसा भयानक खिलवाड़ चल रहा होता हैं आपके सारे ऑर्गन्स के साथ?? फिर आप कहते हैं साइड इफेक्ट्स होते है दवाइयों से। वाकई? सिर्फ दवाओं के साइड इफेक्ट्स है सारे? इस सारे गड़बड़झाले का असली डॉन हैं हमारी-अपनी-सोच।
सोचना बुरी बात नहीं हैं, यही क्वालिटी तो हमें सृष्टि की सर्वश्रेष्ठ प्रजाति बनाती हैं पर इस क्वालिटी का उपयोग करना इस प्रजाति हर व्यक्ति को आता नहीं हैं और यही क्वालिटी आत्मघाती बन जाती हैं।
यहाँ सबसे पहली भूमिका हमारी श्वासों की आती हैं। लम्बी गहरी श्वासों पर किया गया मैडिटेशन आपका पहला तारणहार हैं। यही हैं जो आपके दिमाग के उस इमरजेंसी मोड को ऑफ करता हैं और सारे ऑर्गन्स अपने सामान्य तरीके पर लौट आते हैं.
अगर आप परेशान नहीं हैं और आपके पास समय हैं तो दस मिनट श्वासों पर ध्यान कीजिये और अगर आप तनाव में है बहुत व्यस्त हैं तो यही मैडिटेशन हर रोज बीस मिनट कीजिये क्योंकि इस समय आपको इसकी ज्यादा जरुरत हैं ! ये कैसे करना हैं और साँसे कैसे मददगार साबित होंगी इस बारे में अगले आर्टिकल में बात करेंगे 🙂
इस ब्लॉग को वीडियो के रूप में देखने के लिये यहाँ क्लिक कीजिये