मनःस्थली (Mental Health)

चॉइस नहीं है समलैंगिकता

“माँ मेरे लिए लड़कियाँ देखना बंद करो मैं आपसे कह चुका हूँ मैं शादी नहीं कर सकता। क्यों नहीं कर सकता ये भी बता चुका हूँ।” नरेश की तल्ख़ आवाज़ घर में गूँज गयी। 

सरिता जी की रुलाई फूट गयी थी अब। समझा समझा कर थक गयी इस लड़के को। 6 फिट का ऊँचा लम्बा कद, कद्दावर कद काठी वाला अफसर बेटा है। सरिता जी का जी चाहता है दुनियाँ की हर खुशी वार दें इस पर।

बहु लाना चाहतीं हैं पर ऐसी जो ऐसे स्वरूप-गुणवान बेटे को शोभा दे। नरेश तो कभी रुचि लेता ही नहीं था। वे ख़ुद ही कई लड़कियों को नापसंद कर चुकी हैं पर जब उनके मापदण्डों पर खरी उतरने वाली लड़कियों को भी नरेश ना कहने लगा तो उन्हें बात खटकने लगी। “शायद कोई पसंद होगी…” सोच कर मन को समझा लिया। लाड से बेटे को पूछा चल बता दे कौन पसंद है तुझे। तेरी ख़ुशी से बढ़ कर कुछ नहीं है। 

और उस रोज़ नरेश ने जो कहा उसे सुन कर वे कितनी देर जड़ हुई बैठी रहीं उन्हें ख़ुद नहीं पता। इसके बाद मंदिर-मंदिर घूमी, यज्ञ हवन करवाये… बेटे को माँ के दूध से ले कर पुरखों की प्रतिष्ठा तक हर बात की दुहाई दी पर सब व्यर्थ!! 

“एक बार शादी कर ले बेटा देखना ये सब फ़ितूर तेरे दिमाग़ से निकल जाएगा…” नरेश की चिरौरियाँ करती रहती।

 “माँ अब मेरे साथ ज़बरदस्ती की तो जान दे दूँगा मैं, बता रहा हूँ!!” 

ओह! ऐसा तो वे कभी नहीं होने दे सकती। अब लगा बात हाथ से निकली जा रही है. आज पहली बार फ़ोन को सोशल मीडिया से अलग किसी इस्तेमाल के लिए उठाया। गूगल पर इस बारे में खोजा कुछ समझ आया कुछ नहीं आया। पर एक मनोवैज्ञानिक का नंबर मिल गया। दो दिन बाद सरिता जी मनोवैज्ञानिक के कक्ष में थी। वे जानना चाहती थी कि क्या उनकी परवरिश में कमी रह गयी जो बेटा अपना अच्छा बुरा भी नहीं देख पा रहा? क्या बुरी संगत ने बेटे के दिमाग़ में यह सब भर दिया है तो अब इसे कैसे ठीक करें?? 

मनोवैज्ञानिक उनकी मनोदशा को भली भाँति समझ रही थी। “देखिये सरिता जी, बहुत से लोग हैं जो समलैंगिकता को नैतिकता से जोड़ कर देखते हैं, 

बहुत से ऐसे हैं जिनकी नज़र में ये कोई मानसिक विकृति है। 

तो किसी को यह पाश्चात्य संस्कृति की देखा देखी किया जाने वाला फ़ितूर लगता है। 

इन तीनों बातों का सबसे पहला जवाब ये है कि समलैंगिकता “इच्छा” का विषय है ही नहीं। 

यह शरीर की एक पूर्व निर्धारित व्यवस्था (डिफ़ॉल्ट सेट्टिंग) है। 

आप सोचेंगे जन्म के साथ ही शरीर ने तो अपने अंदरूनी और बाहरी अंग किसी एक लिंग (gender) के अनुसार तय कर लिए है। समलैंगिकता तो सोच के स्तर पर होती है और सोच तो बाद में बनती है तो यह पूर्व निर्धारित कैसे हुई? 

जैसा कि आप जानते हैं बच्चे का लिंग क्या होगा यह गर्भधारण के समय ही निश्चित हो जाता है। पिता के शुक्राणु को माँ के अंडाणु में प्रवेश के बाद भी गर्भधारण होने में लगभग चौबीस घंटे तक लगते हैं इतना लम्बा समय इसलिये क्योंकि ये दोनों अपने साथ हज़ारों-लाखों की संख्या में जीन्स ले कर एक दूजे से मिलते हैं। इन इतने सारे जीन्स  को आपस में व्यवस्थित हो कर मिलना है इसलिए इतना समय लगता है। एक बार माता पिता के ये गुणसूत्र मिल कर एक कोशिका (भ्रूण) बना देते है तो बच्चे के बारे में बहुत कुछ तय हो जाता है। आप समझ रही हैं न इस समय बच्चा कुछ भी ख़ुद नहीं चुन रहा है ! 

इन लाखों जीन्स  के मेल के समय कभी कभी “कुछ अलग” घट जाता है और यानी कुछ जीन्स  अलग तरह से जुड़ जाते हैं। किन्हीं एक-दो जीन्स  का “अलग तरह से जुड़ जाना” भी बहुत कुछ बदल देता है। इन जीन्स  का मेल तय करता है बच्चे का लिंग, रंगरूप, क़द काठी, बौद्धिक क्षमता की सीमा, स्वभाव के आयाम, और हॉर्मोन! 

जीन्स  तय करते हैं कौन से और कितने हॉर्मोन स्त्रवित होंगे।

हमारे शरीर की ग्रंथियाँ जो हार्मोन्स स्त्रवित करती हैं यह उन हार्मोन्स पर निर्भर करता है कि व्यक्ति की “लैंगिक प्राथमिकतायें” क्या होंगी यानी उसके मन में कैसा लैंगिक आकर्षण होगा। 

इसे एक बहुत साधारण उदाहरण से समझिये-

हम सब जानते हैं कि दाढ़ी मूँछ पुरुषों को आती है स्त्रियों को नहीं। ये दाढ़ी मूँछ आना या न आना पुरुष या स्त्रियाँ स्वयं “चुनते” नहीं हैं बल्कि उनके शरीर के अंदर स्त्रवित होने वाले हार्मोन्स यह तय करते है कि  दाढ़ी मूँछ आनी है या नहीं आनी। 

एक बहुत दिलचस्प बात जो आप सबको पता होनी चाहिये वो यह है कि हमारे शरीर में दोनों तरह के हार्मोन्स बनते हैं — स्त्रियोंचित गुण देने वाले भी और पुरुषोंचित गुण देने वाले भी। 

हालाँकि इनकी मात्रा इस पर निर्भर करती है कि व्यक्ति का बायोलॉजिकल लिंग (gender) क्या है। 

पुरुषों में पुरुषोचित गुण देने वाले हार्मोन्स का स्त्रवन अधिक होगा और स्त्रियों के स्त्रियोचित गुण वाले हार्मोन्स का स्त्रवन अधिक होगा। 

लेकिन, ऐसा सौ प्रतिशत बार होगा ही — इसकी कोई गारण्टी नहीं है !! 

आप ने देखा होगा की कुछ स्त्रियों के होठों के ऊपर हल्की रुआँली आती है जिसे की आप पार्लर में अप्पर लिप्स थ्रेडिंग से हटवाते हैं । अब होठों के ऊपर के हिस्से में आने वाले ये बाल कुछ स्त्रियों में अपेक्षाकृत ज़्यादा आते हैं तो कुछ में कम और किसी किसी को तो उन्हें हटवाना पड़े इतने आते ही नहीं। 

तो क्या होठों पर आने वाले ये बाल आपकी चॉइस हैं??

क्या ये आपके दिमाग़ की कोई विकृति है ??

क्या होठों के ऊपरी हिस्से से बाल हटवाना (upperlips hair removal) पाश्चात्य संस्कृति का अनुसरण है?? 

अगर इन सबके लिए आपका उत्तर “ना” है तो यह भी जान लीजिये कि  ये सारा खेल बस हार्मोन्स का है। कुछ हार्मोन्स ऐसे  हैं जो “कुछ ज़्यादा” होने पर हल्की मूँछों जैसे बाल देने लगते हैं और वहीं कुछ हार्मोन्स ऐसे हैं जो  “बहुत ज़्यादा” होने पर (गर्भधारण के वक्त जीन्स  का अलग तरह से जुड़ जाने के कारण) लैंगिक प्राथमिकतायें ही बदल देते हैं। 

यानी अगर स्त्री के शरीर में लैंगिक आकर्षण तय करने वाले हार्मोन्स में से “पुरुषोचित” वाला हार्मोन अधिक ऐक्टिव है तो पुरुष की तरह “महसूस” करेगी और उसे महिलाएँ आकर्षित करेंगी। पुरुषों के प्रति उसके मन में वैसे ही भाव होंगे जैसे सामान्य स्त्री के मन में स्त्री के प्रति होते हैं। ठीक यही होगा अगर किसी पुरुष के शरीर में जीन्स की बदली व्यवस्था के चलते स्त्रियोचित हार्मोन्स का स्त्रवन अधिक होता है, तो वह एक महिला की तरह “महसूस” करने लगता है और उसका रूमानी आकर्षण पुरुषों के प्रति होने लगता है।

महसूस कर सकने की क़ाबलियत हार्मोन्स के हाथों में है और हार्मोन्स पर आपका — किसी का भी — कोई वश नहीं है!! ख़ास तौर पर तब, जब गर्भधारण के समय ही जीन्स इसे तय कर चुके हों। 

समलैंगिकता किसी व्यक्ति का सोच समझ कर लिया हुआ निर्णय नहीं है यह सब उनके भीतर स्वतः ही हो रहा होता है वैसे ही जैसे यदि समान लिंग के साथ सम्बंध बनाने के लिए आपको बाध्य किया जाए तो यह बात सोचना भी आपको असहज कर देता है ऐसे ही समलैंगिक सेटिंग के साथ जन्मे व्यक्ति को विपरीत लिंग के साथ सम्बंध असहज करते हैं। 

लाखों जीन्स में से किन्ही एक-दो जीन्स का ये अलग तरह से जुड़ना लैंगिक प्राथमिकताओं पर कई तरह के प्रभाव दिखा सकता है। पूर्ण समलैंगिकता भी हो सकती है और दोहरी लैंगिकता (bisexuality) भी। यह भी हो सकता है कि  लैंगिक आकर्षण का पूर्ण अभाव हो (aromantic). 

मानव शरीर अपने आप में कई रहस्य लिए हुए है। प्रकृति ने ही हमारी सोच…समझ में इतनी विभिन्नताएँ दी है कि कुछ भी अप्राकृतिक नहीं रह जाता। हाँ, प्रजनन और सामाजिक व्यवस्था की दृष्टि से यह विभिन्नता हमें असहज करती है पर इतना जान लीजिये की यह इन विभिन्नताओं के साथ जन्मे लोगों का “दोष” नहीं है, न यह उनका चुनाव (choice) है। उन्होंने ऐसा होने का निर्णय भी नहीं लिया है। जैसे हमें यह अपना लिंग और लैंगिकता “अपने आप मिली है” ठीक इसी तरह इन्हें भी यह “अपने आप मिली है” 

सरिता जी के लिए यह सब किसी अकल्पनीय कहानी जैसा था लेकिन विज्ञान अपने शोध लिए सामने खड़ा था और इस शोध को प्रमाणित करने वाला साक्ष्य तो उनके घर में ही था। आगे की राह जो उन्हें इतनी कठिन लग रही है उसे अनजाने में वे अपने बेटे के लिए कितनी दुशवार बना रहीं थी यह सोच कर ही उनका मन काँप गया। नहीं, चाहे जो हो जाए वे अपने बेटे को सामाजिक व्यवस्था के नाम पर नारकीय जीवन जीने को बाध्य नहीं करेंगी। घर में बहु आए या न आए पर बेटे को एक सही और मनचाहा जीवन साथी मिल जाए अब यही चाहती हैं  वे। 

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सरिता जी जैसे अभिभावकों के लिए ये चुनौतियाँ निश्चित रूप से बहुत बड़ी है पर नरेश जैसे लोगों के लिए मसला इससे भी बड़ा है। जो बात कभी न होती हो उसे अचानक से सत्य मान लेना और स्वीकृति भी दे देना सरल नहीं है लेकिन फिर भी,

बतौर समाज हमें इतना संवेदनशील तो होना होगा कि इस समुदाय को, इनकी तरह के सामान्य जीवन को, सम्मान के साथ समाज में स्थान दे सकें।

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