मिलिये मन के बॉस से!
पिछले आर्टिकल में हमने बात की कि मन बहुत महत्वपूर्ण होता हैं, इतना महत्वपूर्ण के शरीर के सारे अंग और सारे सिस्टम्स उस पर निर्भर करते हैं। लेकिन मन के अंतर्गत काम करने वाली भावनाओं की बटैलियन और तर्क-बुद्धि के बीच कभी-कभी ठन सी जाती हैं. यूँ तो ये दोनों मिल कर काम करते हैं पर कई बार एकमत नहीं हो पाते।
जैसे मान लीजिये के अगर मेरे सामने कोई बात आएगी तो स्वाभाविक हैं की उस बात के लिए मेरी एक प्रतिक्रिया भी होगी।
लेकिन, मेरे अंदर कौन हैं जो ये तय करेगा के क्या प्रतिक्रिया देनी हैं?
- गुस्सा करना हैं, हँस देना हैं…या नाराज हो कर चले जाना हैं
कौन decide करता हैं ??
ये जो हमारी बॉडी हैं इसमें कई टीम्स हैं जो ये सारे काम देखतीं हैं।
हमारे शरीर की तरफ से सबसे पहली प्रतिक्रिया देने वाली टीम भावनाओं की ही होती हैं। ये frontline पर खड़ी हुई टीम हैं। किसी भी परिस्थिति के आने पर सबसे पहले हमारी भावनाएं रियेक्ट करती हैं — यानि हम कुछ “महसूस करते हैं” लेकिन, हम उस पल जो कुछ भी महसूस करते हैं वो वैसा का वैसा बाहर जाहिर तो नहीं कर देते। बल्कि ये टीम मामले को ऊपर वाली टीम को ट्रांसफर करती हैं — ऊपर वाली टीम यानि “तर्क बुद्धि”
भावनाओं की टीम जाएगी और कहेगी के, “देखों कैसे बात की गयी हैं हमसे। … बड़ा ही अपमान किया जा रहा हैं… क्या करें झगड़ा कर लें क्या??
फिर तर्क बुद्धि कहती हैं रुको, रुको जरा… पहले ये बताओ कौन कर रहा है अपमान? कहाँ पर कर रहा हैं? इस समय जवाब देने से फायदा हैं या नुकसान? हमारी छवि तो नहीं खराब हो जाएगी? बात सँभालने की जगह बिगड़ तो नहीं जाएगी!!!
ये सब देख-भाल कर तर्कबुद्धि तय करती हैं के क्या प्रतिक्रिया देनी चाहिए।
अब कई बार भावनाएं इस निर्णय से सहमत होती हैं तो कई बार नहीं भी होती।
कई बार भावनाएं इतने उबाल पर होती हैं के वे तर्कबुद्धि की बात सुनना ही नहीं चाहती तो कभी-कभी ठीक इसका उल्टा भी होता हैं। भावनाओं की टीम बहुत डरी हुई होती हैं तर्कबुद्धि उन्हें अपने लिए स्टैंड लेने को कहती हैं पर भावनाएँ साथ नहीं देती और प्रतिक्रिया को अपने हिसाब से बदल देती हैं।
ऐसे में बुद्धि और भावनाओं के बीच अंतर्द्वंद शुरू हो जाता हैं। भावनाएँ यानि हार्मोन्स की बटालियन और तर्क बुद्धि यानि विचारों का एक पूरा जंजाल। जब भावनाएँ अपनी तरफ खींचती हो और तर्क बुद्धि अपनी तरफ. ऐसे में निर्णय कौन ले? यही समय है जब मामला सुपर बॉस के पास जाना चाहिए।
बुद्धि और भावनाओं — दोनों का बॉस! कौन हैं ये?
इस बॉस का नाम हैं “विवेक” विवेक यानि wisdom.
भावनाएँ बस इतना जानती हैं के उन्हें “अभी क्या चाहिए” जो अभी चाहिए बस वही सही हैं !
तर्क बुद्धि ये देखती हैं के “अपने लिए क्या सुरक्षित है” यानि जो अभी खुद को सुरक्षित रख सके, बस वही सही हैं।
विवेक यानि विजडम यह देखता हैं के “क्या सही हैं ” as a whole. विवेक के पास दूर दृष्टि होती हैं — इसलिए विवेक वो भी देख पाता हैं जो ये दोनों नहीं देख पा रहे होते।
हो सकता है जो सही हो उसमें मन को मजा न आये, हो सकता है तर्क बुद्धि को लगे के इसमें तो बहुत मेंहनत लगेगी पर विवेक आपको वह सुझाएगा जो “आपको करना चाहिए” “जो आपके लिए वास्तव में सही हैं”, “वास्तव में जरूरी हैं ! “
इन तीनों के काम करने के तरीके को एक छोटी सी कहानी से समझते हैं।
एक बार एक फैक्ट्री में कुछ मजदूर काम करते थे। गरीब मेहनती लोग थे। दिन भर काम करते और शाम को ठेकेदार के पास जा कर रजिस्टर में अंगूठा लगाते और अपनी दिहाड़ी ले लेते।
एक दिन उन्हें पता चला के वे जितनी रकम पर अंगूठा लगाते हैं उतने पैसे तो ठेकेदार उनको देता ही नहीं हैं। उन्हें तो बहुत कम पैसे दिए जा रहे हैं। पता चलते ही सब मजदूरों में रोष फ़ैल गया ! कुछ जो बूढ़े मजदूर थे वे भाग्य को कोसने लगे के हाय हमको ही ऐसा बेईमान ठेकेदार मिलना था जो हमारे पैसे खा गया !! हम तो गरीब लाचार लोग हैं ठेकेदार से कैसे लड़ सकते हैं!
जो युवा वर्ग था वो बोला किस्मत को कोसने की क्या बात हैं! और कौन कहता है के हम कुछ कर नहीं सकते। ठेकेदार बेईमान हैं तो हम उसकी शिकायत करेंगे। हम अभी मैनेजर साहब के पास जाते हैं और उनसे कहते हैं के इस बेईमान ठेकेदार को नौकरी से निकाले और नया ठेकेदार लगाये।
सब मजदूर पहुंचे मैनेजर से मिलने। बोले देखो साहब कैसा अन्याय हो रहा हैं, वो बेईमान ठेकेदार गरीबों का पैसा लूट रहा हैं। … मैनेजर ने शांति से उनकी पूरी बात सुनी और बोले, “ठीक हैं, अच्छा किया आपने मुझे सब बता दिया। अभी तो आप लोग अपने घर जाइये और शाम को भोजन वगैरह से फारिग हो कर साढ़े आठ बजे वापस फैक्ट्री आ जाइयेगा। आश्वस्त हो कर मजदूर घर लौट आये।
मजदूरों ने सोचा लगता हैं मैनेजर साहब हमारे सामने ही डाँट लगाएँगे ठेकेदार को, और उसको कहेंगे के हम सबसे माफ़ी मांगे। तभी तो हम सबको वापस बुलाया हैं। पर सबने तय लिया था के चाहे जो हो जाये हम ठेकेदार को माफ़ नहीं करेंगे। हम तो मैनेजर साहब को साफ़ साफ़ कह देंगे के ऐसे बेईमान ठेकेदार को तो आप नौकरी से निकालो ही।
शाम को सब मजदूर ख़ुशी-ख़ुशी फैक्ट्री पहुँचे तो क्या देखते हैं के फैक्ट्री के आगे तेज रौशनी वाली लाइट्स लगी हुई हैं, फर्श पर दरियाँ बिछी हैं, दरियों पर बस्ते रखे हैं, एक बड़ा सा ब्लैक बोर्ड लगा हैं और वहीँ एक लड़का खड़ा हैं जिसे मैनेजर साहब बातचीत कर रहें हैं। मजदूरों की नज़रे ठेकेदार को खोज रही थी जिसको अभी डाँट पड़ने वाली थी और जो अभी उनसे हाथ जोड़ कर माफ़ी माँगने वाला हैं और जिसकी माफ़ी को वे ठुकरा देने वाले हैं। तो वहां के सारे नज़ारे को नज़रअंदाज़ करते हुए वे लोग मैनेजर की और बढे। उनको देख कर मैनेजर साहब खुश हो गए बोले अरे आ गए आप लोग! आइये आपको इनसे मिलवाता हूँ। ये हैं आपके मास्टर जी। और आज से हर शाम एक घंटा ये आप लोगों को पढ़ाएंगे।
पढ़ाएंगे!!! हमको !!! क्यों?? मजदूरों ने हैरान हो कर पुछा।
मैनेजर साहब मुस्कुराये और बोले हाँजी आज से हर शाम आप लोगों की क्लास लगेगी। आप पढ़ना नहीं जानते इसीलिए ठेकेदार के हाथों ठगे गए थे न।
अब मजदूर बिलकुल बिफर गए, अरे साहब ये क्या बात हुई! बेईमान तो वो ठेकेदार है आप उसको सजा दो, आपने तो हमको ही सजा सुना दी। अब हम इस उम्र में कहाँ ये सब माथापच्ची करेंगे। नहीं नहीं आप तो उस ठेकेदार को बुलाओ उसको डाँटो और उसको नौकरी से निकालो बस हमे तो इतना ही चाहिए।
मैनेजर साहब बोले, अच्छा चलो मान लो के मैंने उसे नौकरी से निकाल दिया तो क्या गारण्टी हैं के नया ठेकेदार भी ऐसा ही नहीं होगा? जब उसे आप लोगों की कमजोरी का पता चलेगा तो वो भी इसका फायदा नहीं उठाना चाहेगा? आप लोग अगर इस फैक्ट्री का काम छोड़ कर कहीं और काम करने गए तो वहां भी आपके साथ ऐसा ही नहीं होगा। क्योंकि आपकी यह कमी तो आपके साथ ही चलेगी चाहें आप जहाँ भी जाये, चाहे आपके सामने कोई भी हो।आप हमेशा इसी आशंकित ही रहेंगे लेकिन अगर आप साक्षर होंगे तो आपकी यह समस्या जड़ से ही ख़त्म हो जाएगी। फिर कोई आपको ठग नहीं पायेगा।
इस कहानी में जो ठेकेदार हैं वह हैं जीवन में आने वाली परिस्थिति
बूढ़े मजदूर हैं, वे हैं भावनाएँ जो आहत होना जानती हैं, उत्साहित होना जानती हैं पर बदलाव से डरती भी हैं
जो युवा मजदूर हैं वह है तर्क बुद्धि — जो अपने लिए अभी सबकुछ कैसे ठीक करना है, बस इतना ही सोचती हैं.
जो मैनेजर हैं वह हैं विवेक !
विवेक को हालात की गाँठ का एक एक धागा खोलना आता हैं
विवेक को पता हैं के जरूरतें दो तरह की होती हैं — एक होती है felt need यानि वो जरुरत जो महसूस हो रही हैं जैसे मजदूरों को लग रहा था के “ठेकेदार समस्या है — उसे बदल दो”
और एक होती हैं एक्चुअल नीड यानि वास्तविक समस्या। जिसे देखने के लिए wisdom चाहिए होता हैं। जो मैनेजर देख पाया के टेम्पेररी हल से कुछ नहीं होगा। पूरी तस्वीर देखो और पता लगाओ के वास्तव में काम कहाँ करना हैं।
अब आपकी जिंदगी में ये बेईमान ठेकेदार कोई भी हो सकता हैं ऑफिस का कोई सहकर्मी, या शायद कोई नजदीकी रिश्तेदार! आपको ऐसा “लगता हैं ” के समस्या उसके होने से हैं पर अगर आप ये मामला अपने विवेक के हाथों में सौंपेंगे तो पाएंगे के बदलाव की वास्तविक जरुरत कहीं और ही हैं।
पर विवेक आपको रास्ता तो तब सुझाएगा न जब आपका उस से संपर्क होगा!
आप विवेक के साथ मीटिंग फिक्स करेंगे कैसे? क्योंकि आप का रास्ता रोके खड़ा होगा मन, भावनाओं की पूरी बटालियन ले कर। उस से पार पाएंगे तो दिमाग अपने तर्कों में उलझा देगा।
प्रकृति को पता था के भावनाएं और तर्क बुद्धि ये दोनों आपको आसानी से विवेक से मिलने नहीं देंगे। इसीलिए हमारी सहायता के लिए उसने एक खास ख़ुफ़िया नेटवर्किंग की व्यवस्था की हैं। ये ख़ुफ़िया नेटवर्क ऊपर ऊपर से तो अपना काम कुछ और दिखाता हैं पर असल में यह बड़ा पॉवरफुल नेटवर्क हैं जो भावनाओं और तर्क बुद्धि को एक तरफ कर के आपकी मुलाक़ात बिग बॉस यानि विवेक के साथ फिक्स करवा सकता हैं।
इस ख़ुफ़िया नेटवर्क का नाम क्या हैं और ये कैसे काम करता हैं? अगले आर्टिकल में जानते हैं 🙂
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